गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

 

 ( सरस दरबारी जी की एक रचना )

माँ.... मैं दूध न पी पाऊँगी!

कई बार बच्चों की कोमल  सच्ची  भावनाएं हमें  जीवन  के भूले   हुए पाठ याद दिला जाती हैं


आज अचानक खेल अधूरा
छोडके वह बैठी
आँचल के छोरसे पोंछके आंसू
औंधे मूंह जा लेटी 
पूछा मैंने जाकर उससे
"अरे क्या हुआ है तुझको "
रोते रोते बोली -
"माँ ..अब दूध पीना मुझको "
बहला फुसलाकर मैंने फिर जब उससे कारण पूछा
आंसू का रेला उमड़ा ...
और दर्द उसका बह निकला  ....
"माँ, वह ग्वाला कितना गन्दा !.....
बछड़ा भूखा रोता था , था पड़ा गले रस्सी का फंदा
ग्वालेने जैसे ही फंदा , गले से निकाला
भूखा बछड़ा दौड़ता हुआ , माँ के पास था आया ....
थोडासा ही दूध अभी वह बछड़ा था पी पाया ...
ग्वालेने झटसे खींच के उसको
माँ से दूर भगाया ......!
बछड़ा दूर बंधा हुआ , था अपनी बारी जोहता
उतने में वह गन्दा ग्वाला ,
सारा दूध था दोहता ...
सारा दूध निकाल ग्वाला,
 लोगों में बाँट आया !
जब बछड़े की बारी आयी ,
उसने कुछ पाया.!!!  

माँ क्या ऐसा रोज़ है होता ?
रोज़ वह बछड़ा भूखा रोता ?
माँ उसका हक छीनकर
कैसे मैं खुश रह पाऊँगी
मेरी प्यारी अम्मा....
अब मैं दूध कभी पी पाऊँगी  !"

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012







इतनी क्रूरता निर्दयता   देख कर मन बहुत व्यथित हो रहा है,खुद पर शर्म भी आ रही है के हम इंसान होते हुए भी इन्हें बचा नहीं सकते , क्या कुछ भी नहीं किया जा सकता इन्हें बचाने के लिए ???????????