( सरस दरबारी जी की एक रचना )
माँ.... मैं दूध न पी पाऊँगी!
आज अचानक खेल अधूरा
छोडके वह आ बैठी
आँचल के छोरसे पोंछके आंसू
औंधे मूंह जा लेटी
पूछा मैंने जाकर उससे
"अरे क्या हुआ है तुझको "
रोते रोते बोली -
"माँ ..अब दूध न पीना मुझको "
बहला फुसलाकर मैंने फिर जब उससे कारण पूछा
आंसू का रेला उमड़ा ...
और दर्द उसका बह निकला ....
"माँ, वह ग्वाला कितना गन्दा !.....
बछड़ा भूखा रोता था , था पड़ा गले रस्सी का फंदा
ग्वालेने जैसे ही फंदा , गले से निकाला
भूखा बछड़ा दौड़ता हुआ , माँ के पास था आया ....
थोडासा ही दूध अभी वह बछड़ा था पी पाया ...
ग्वालेने झटसे खींच के उसको
माँ से दूर भगाया ......!
बछड़ा दूर बंधा हुआ , था अपनी बारी जोहता
उतने में वह गन्दा ग्वाला ,
सारा दूध था दोहता ...
सारा दूध निकाल ग्वाला,
लोगों में बाँट आया !
जब बछड़े की बारी आयी ,
उसने कुछ न पाया.!!!
माँ क्या ऐसा रोज़ है होता ?
रोज़ वह बछड़ा भूखा रोता ?
न माँ उसका हक छीनकर
कैसे मैं खुश रह पाऊँगी
मेरी प्यारी अम्मा....
अब मैं दूध कभी न पी पाऊँगी !"